कोविद-19: साम्राज्यवाद वायरस है, क्रांति ही इसका एकमात्र उपचार!

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इप्शिता
कोरोना वायरस जो आज एक महामारी के रूप में हमारे सामने आया है, अभी तक 70,000 से ज़्यादा लोगो को निघल चुका है, और ये संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। ये लेख आपको आंकड़े बताने के लिए नहीं बल्कि इस बारे में चर्चा छेड़ने के लिए लिखा गया है कि आखिर ऐसी महामारी होती क्यों है, मौजूदा स्थिति क्या है और सबसे ज़रूरी कि इसका स्थायी इलाज क्या है?
1 . सबसे पहले हम इसके कारण के बारे में देखते है:
‘यूरोप (और पूरी दुनिया) को एक वायरस आतंकित कर रहा है- जिसका वाहक पूँजीवाद है।’ यह असल में इस क्लासिक पंक्ति का संशोधन है: ‘यूरोप को एक भूत आतंकित कर रहा है- वो भूत साम्यवाद का है’, जो कि मार्क्स और एंगेल्स द्वारा लिखा गया कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो की पहली पंक्ति है।
आइये देखते है कि यहाँ इस तुलना का क्या मतलब है..
कोविद-19 जैसे वायरसों का उपजना और फैलना केवल पूँजीवाद के समय में ही संभव है, जब कुछ चुनिंदा लोगों के पास ही उत्पादन के साधनों पर कब्जेदारी हो और व्यवस्था उन्हीं के मुनाफे के अनुसार चल रही हो।
पूँजीवाद मुनाफे की राजनीति पर टिका है । ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफे की प्यास पूँजीपति तेज़ी से उत्पादन बढ़ा रहे हैं और साथ ही मज़दूरों की हिस्सेदारी घटा रहे है, जिससे मेहनतकश वर्ग और गरीब होता जा रहा है । (जैसा कि ऑक्सफेम (एक प्रख्यात अंतर्राष्ट्रीय संगठन) रिपोर्ट का कहना है, 2018 में 26 सबसे अमीर लोगों की संपत्ति निचली आधी जनसंख्या कि संपत्ति के बराबर थी जिसमे 2200 अरबपतियों कि संपत्ति में 12 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई और निचली आधी आबादी की संपत्ति में 11 प्रतिशत की गिरावट!) पूंजीवाद के इसी लालच के कारण पूर्ती (उत्पादन) में तो तेज़ी से बढ़ोतरी हुई है परन्तु उतनी ही तेज़ी से मांग (डिमांड) में आम जनता की क्रय क्षमता (purchasing power ) के अनुरूप गिरावट भी हुई है । इससे वैश्विक अर्थव्यवस्था में असंतुलन हुआ है जिससे ‘अतिउत्पादन का संकट’ जन्मा है और बढ़ रहा है ।
अतिउत्पादन के संकट से उभरने के लिए और पूर्ती और माँग की इसी खाई को कम करने के लिए दुनिया भर के पूँजीपति जनता के बीच उपभोग बढ़ाने के प्रयास में नई और आकर्षक चीज़े बाजार में लाते रहते है, बिना इसकी परवाह किये कि आखिर जनता पर इसका क्या असर पड़ेगा ।
कोविद-19 वैश्विक पूँजी के इसी संकट का एक उच्चतर नमूना है। वैज्ञानिकों का कहना है कि कोरोनावायरस चीन के जंगली जानवरों से उत्पन्न हुआ है । वुहान के हुआँन बाजार में एक वेट मार्किट (wet market ) है जहाँ कई तरह के जंगली जानवरों का व्यापर होता है। जंगली जानवरों का यह उद्योग बहुत बड़ा है और वहाँ जानवरों का गैरकानूनी धंधा भी चलता है । कोरोनावायरस का आना और फैलना कोई नया घटनाक्रम नहीं है, अपितु ऐसे वायरसेस कुछ सालों में आते रहे हैं जैसे कि २००२ में आया सार्स (SARS ) वायरस। सार्स की उत्पत्ति का स्रोत चीन के जंगली जानवर उद्योग ही था जिसके पता लगने के बाद चीन में कुछ समय तक इस उद्योग पर पाबन्दी लगा दी गयी थी परन्तु बाद में इसे दोबारा खोल दिया गया। यहाँ तक कि उसके बाद साल दर साल यह उद्योग बढ़ता गया । यह बात जानते हुए कि चीन के धनी लोगों की आबादी (जिसका प्रतिशत बहुत काम है) ही जंगली जानवरों से बनी चीज़ों का इस्तेमाल करती है, यह साफ़ हो जाता है कि चीन के लिए अपने आम नागरिकों से ऊपर कुछ चुनिंदा अमीर लोगों और उनसे कमाया गया मुनाफा है। हाल में यह भी पता चला है कि चीन ने दोबारा से अपना वेट मार्किट खोल दिया है जबकि दुनिया अभी तक कोरोना से जूझ रही है।
आज का सबसे बड़ा अंतर्विरोध दुनिया भर की महनतकश जनता और साम्राज्यवाद के बीच है । साम्राज्यवाद भारत जैसे तीसरी दुनिया के देशों के संसाधन इस्तेमाल कर के वहीं के मज़दूरों से कम वेतन में उत्पादन कराता है और कई गुना मुनाफा अपने लिए लूट ले जाता है । अपने लालच में साम्राज्यवाद इन देशों के प्राकृतिक संसाधनों को लगातार लूट रहा है। उदाहरण के लिए- अंटार्कटिका के ग्लेशियरों में हज़ारों साल पुराने जानवरों के जमे हुए अवशेष दबे हुए है । पूँजीवादी लूट के कारण जो जलवायु में परिवर्तन आया है, उसी का नतीजा है कि ये ग्लेशियर अब पिघल रहे है और इसके साथ ही दबे हुए जीव समुद्र में बह जा रहे है जिससे अनेकों नए वायरस के आने की सम्भावना है। इससे निपटने के बारे में हमारी पीढ़ी एकदम अनजान है।
नवंबर के महीने में चीन में कोरोनावायरस के मामले आने के बाद लगभग एक महीने तक चीन ने दुनिया से इस खबर को छुपा कर रखा और अपने यहाँ की मीडिया की भी आवाज़ दबा कर रखी। ऐसा इसलिए क्यूंकि चीन एक साम्राज्यवादी देश, एक सुपरपॉवर के बतौर उभर रहा है और इस बात के बाहर आने से उसका सारा आय- व्यय रुक जाता और उसकी अर्थव्यवस्था में गंभीर गिरावट होती। अतः यह वैश्विक पूँजीवाद के उस भेड़िए को उजागर करता है जो मुनाफे के लिए इंसानो का खून भी पी सकता है।
जैसा कि अमेरिका की दलाल मीडिया और बहुत से लोग भी चीन को इस महामारी का कारण बता रहे हैं, परन्तु असल में चीन नहीं, बल्कि साम्राज्यवाद इस महामारी का कारण है। ऊपर चीन का बस उदाहरण मात्र था, ऐसे उदाहरण हम लगभग सभी अर्थव्यवस्थाओं में देख सकते हैं, चाहे वो भारत के आदिवासी हो जिन्हें कॉर्पोरेट लूट के लिए मारा जा रहा है, या फिर कॉन्गो के वो बच्चे जो मोबाइल कंपनियों के लिए खनिज करते समय दब कर मर जाते हैं ।
2 . कोरोना वायरस से कैसे निपटा जा रहा है ?
भारत में:
टेस्टिंग किट्स की कमी से ले कर प्रोटेक्टिव इक्विपमेंट्स (Protective equipments) की कमी तक, भारत जैसे अर्द्ध-औपनिवेशिक देशों की अर्थव्यवस्था की नाकामी साफ़ हो चुकी है । भारत में जब शुरूआती मामलें आए तब हमारे प्रधान मंत्री अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की खुशामद की तैयारियों में व्यस्त थे।
भारत जैसे देश में जहाँ अधिकांश जनता असंगठित क्षेत्र में और दैनिक कर्मियों के रूप में काम कर रही है, ऐसे में 24 मार्च को 8 बजे, महज लॉक डाउन से चार घंटे पहले, मोदी द्वारा लॉक डाउन की घोषणा (वो भी बिना किसी तैयारी के) की मार इन कर्मियों के लिए कोरोना से कई गुना बढ़ कर थी। दिहाड़ी मज़दूर, ठेले-खोमचे वाले, भिखारी, और छोटे व्यापारी जो प्रति दिन कमाते और उसी से अपना और अपने परिवार का पेट भरते हैं , वे सब झटके में बेरोज़गार हो गए और प्रवासी मज़दूर बेरोज़गार के साथ साथ बेघर भी। ज़िंदा रहने की कोशिश में हज़ारों प्रवासी मज़दूर अपने घर के लिए पैदल निकल पड़े, जैसे कि शहर से गांव की ओर एक ‘लॉन्ग मार्च’ निकली हो। कुछ लोग अपने छोटे बच्चों को अपनी कन्धों पर लिए निकल पड़े, कुछ लोगों ने रास्ते में ही अपना दम तोड़ दिया।
भारत में ब्राह्मणवादी फासीवाद हमारी सड़ी हुई व्यवस्था को ढकने का काम करता है। वो ऐसे कि फरवरी के शुरुआत से ही डॉक्टरों ने पर्सनल प्रोटेक्टिव इक्विपमेंट (PPE) की ज़रूरत के बारे में सरकार से अनुरोध किया था जो कि तब से अब तक नज़रअंदाज़ किया गया। व्यंग्य की बात ये है कि PM मोदी ने 22 मार्च को जनता कर्फ्यू का ऐलान किया जिसमे लोगों से थाली बजा कर और शंख बजा कर देश के सुरक्षाकर्मियों को सम्मान देने का आग्रह किया । और हमारे देश के मिडिल क्लास ये पूछने के बजाय कि सुरक्षाकर्मियों को सुरक्षा की अभाव में काम क्यों करना पड़ रहा है, वे Pied Piper की धुन का पीछा करते चले गए। बड़े धूम-धाम से उन्होंने इस ‘उत्सव’ को मनाया और ‘सोशल डिस्टेंसिंग’ के सरे नियमों को बेबाक तोड़ा। फिर अप्रैल को दोबारा तानाशाह मोदी ने अपना फरमान सुनाया कि 5 अप्रैल को सभी लोग रात 9 बजे अपने घरों की लाइट बंद कर मोमबत्ती और दिए जलाये ताकि उन्हें ‘एकता’ का एहसास हो। इस बात के बावजूद कि कोरोना से हुई मौतों के आंकड़े बढ़ते जा रहे हैं और PPE के अभाव के कारण कई डॉक्टरों को कोरोना ने अपनी चपेट में भी ले लिया, कई लोग भूखे सोने को मजबूर हैं, इस सब के बावजूद, लोगो ने इस फरमान को ‘पर्व’ की तरह मनाया । ‘शंख’ और ‘दिएँ’ जो कि हिन्दू संस्कृति के प्रतीक है, इनको हिन्दू लोगों के भाव से खेलने के लिए इस्तेमाल किया गया, उसके बाद डीडी चैनल पर रामायण और महाभारत का प्रसार शुरू किया। फिर जमात तब्लीग़ी के मामले के बाद साम्प्रदायिकता के अपने अंतिम पासे से पूरा खेल जीत लिया । इस मामले के बाद मुसलमानों को ‘सुसाइड बॉम्बर्स’ और ‘कोरोना जिहाद’ जैसी चीज़े तथा अनेक प्रकार के नकली वीडियोस सोशल मीडिया में फैला कर आम हिन्दुओं के बीच नफरत फ़ैलाने का काम किया ।अंततः कोरोनावायरस फैलना की ज़िम्मेदारी मुसलमानों पर थोप दी गयी और सरकार को अपनी नाकामियों को सांप्रदायिक चोले से ढकने का मौका दोबारा मिल गया। इसी नफरत का परिणाम है कि एक डॉक्टर द्वारा एक औरत की डिलीवरी इसलिए नहीं की गयी क्यूंकि वो मुसलमान थी, एक मुसलमान की लिंचिंग कर दी गयी और एक मुस्लमान ने कोरोना के लिए लगातार उसे ज़िम्मेवार ठहराए जाने के कारण आत्महत्या कर ली । अतः इस समय जब भारत में एक मिलियन पर केवल 18 लोगों की जाँच की जा रही है जो कि बहुत ज़्यादा कम है, मज़दूर पलायन के कारण मर चुके है और अब भूख से मर रहे हैं, डॉक्टरों की सुरक्षा के लिए पर्याप्त इक्विपमेंट्स नहीं हैं, अभी सही समय है मेहनतकश वर्ग के लिए ये सोचने का कि क्या वो इसी सड़ी गली व्यवस्था में जीना चाहते है या क्या अब इस व्यवस्था को बदलने की ज़रूरत है ।
और दुनिया में
हमने कोरोनावायरस का संक्रमण विकसित एवं विकासशील दोनों ही तरह के अर्थव्यवस्थाओं में देखा। कोरोना से निपटने का तरीका किसी देश के आर्थिक- राजनैतिक व्यवस्था पर निर्भर कर रहा है । एक तरफ हमने अमेरिका और इटली, स्पेन जैसे यूरोपी देशों की बिगड़ती हालत देखी, दूसरी तरफ क्यूबा और वेनेज़ुएला जैसे देशों में कोरोना से निपटने के बढ़िया तरीके देखे। क्यूबा जो कि लातिन अमेरिका में स्थित एक देश है, उसके एंटी- वायरल ड्रग चीन द्वारा कोरोना से निपटने के लिए इस्तेमाल किया गया। क्यूबा में पहला केस आने के बाद से ही उन्होंने प्रवासियों के लिए रोक लगायी और लॉक डाउन कर अपने सभी कर्मियों को आमदनी उपलब्ध करायी। उसके बाद क्यूबा ने अपनी डॉक्टरों की टीम को दुनिया के कई देशों में कोरोना का इलाज करने के लिए भेजा। मार्च के शुरुआत में एक ब्रिटिश जहाज़ के यात्रियों को कोरोना का रोग लग गया था और कोई देश उन्हें अपने तट पर उतारने को तैयार नहीं था तब क्यूबा ने ही उन्हें अपने यहां आने दिया और उनका इलाज भी किया । क्यूबा और बाकि देशों में ये फर्क इसलिए है क्यूंकि क्यूबा में फिदेल कास्त्रो और चे गुआरा के नेतृत्व में 1953 में समाजवादी क्रांति हुई थी जिसके बाद वहाँ के सभी नागरिकों को मुफ़्त चिकित्सा मिलती है ।
आज दुनिया भर में मुख्यधारा की मीडिया जब कोरोना के लिए चीन को दोष दे रही है, कोई मीडिया हाउस कोरोना से निपटने में पूँजीवाद की नाकामयाबी पर चर्चा तक करने को तैयार नहीं है।
3. साम्राज्यवाद वायरस है! क्रांति ही इसका एकमात्र उपचार है!
आज वैश्विक अर्थव्यवस्था संकट के दौर से गुज़र रही है, और कोरोना वायरस ने इस संकट को और भी गहरा दिया है। दलाल मीडिया यह दिखाने में लगी है कि इस महामारी के कारण ही सभी देशों की अर्थव्यवस्था डूबी है परन्तु सच तो ये है कि पहले से ही अतिउत्पादन के संकट के कारण दुनिया भर की अर्थव्यवस्था डूब रही थी ।
दोस्तों, कोरोनावायरस जैसी महामारी तथा बढ़ती बेरोज़गारी, महँगी होती शिक्षा, बढ़ती किसान आत्महत्याओं और ऐसी ही कई बीमारियों की जड़ ये साम्राज्यवादी व्यवस्था है; जिसका हल केवल मार्क्सवाद देता है।
अतः हम सबको साथ मिलकर साम्राज्यवाद तथा ब्राह्मणवादी फासीवाद के खिलाफ युद्ध लड़ना है और एक बराबरी पर आधारित समाज का निर्माण करना है, एक नवजनवादी समाज का निर्माण, अतः वैश्विक साम्यवाद की तरफ बढ़ना है!

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