करोना का कहर फैला है घर-घर

2
454

करोना का कहर फैला है घर-घर
दूर-दूर से अपने घर की ओर आने वाले पथिक
जो थकान से लबरेज हैं
जो डरे हुए भी हैं
दसों दिशाओं से चलने वाली हवाएं
सुकून नहीं दे रही हैं
केवल भय का वातावरण फैला है चारों ओर
नीलगगन शांत नहीं दिख रहा
न धरती शांत नजर आती है
खिली हुई धूप भी डरा रही है हमें
जहां परिंदे भी चुपचाप हैं अपने घोऺसलों में
बच्चे भी दुबके हैं अपनी मां की गोद में
वहां भी शांति ही नीरवता नहीं है
भय और अशांति वहां भी पहले से अधिक मौजूद है
मांएं परेशान हैं अपने नौनिहालों के दुखों को देखकर
खिले हुए फूल भी खुश नहीं हैं यहां
कोयल की कूक आज मौन हो चली है
बसंती बयार भूल गई है अपना बहना
तितलियों में आज उल्लास नहीं है
पेड़ के पत्ते भी हर्षित नहीं है आज
खिले हुए गेंदा, गुलाब, चंपा और चमेली
शोक के गीत गा रही हैं
न जाने कैसा वक्त आ गया है आज।

करोना का कहर फैला है घर-घर
खेत खलिहान सब उदास हैं
फसलें आज दुखी हैं
क्योंकि आज उनको देखने वाला कोई नहीं है
घर में बंद है किसान और मजदूर
क्योंकि घर से बाहर जाना खतरे से खाली नहीं है
पुलिस का कड़ा पहरा है चारों ओर
क्योंकि बाहर जाने से मनाही है आज
और ना जाने कितने दिनों तक वर्तमान रहेगा यह रोक
मवेशियों के लिए भी आ गया है यह कैसा मौसम
उनके चारे भी आज नदारद दिख रहे हैं
उनके सेवक भी परेशान- परेशान हैं
‘वसुधैव कुटुंबकम्’ का यह देश
आज कितना हताशा से भरा हुआ है
जहां अपने भी पराए बने हुए हैं
रक्षक ही भक्षक बने हैं चारों ओर
प्रकृति की मार से आहत हैं हम सब
केवल ईश्वरीय सत्ता पर ही भरोसा बच गया है आज
करोना का कहर –
जीवन के सत्य से कितना जुड़ गया है आज
बच्चे, बूढ़े, जवान ; अमीर -गरीब, स्त्री- पुरुष; हिंदू ,मुस्लिम, सिख, ईसाई :
किसी में भेद नहीं मान रहा है आज।
करोना का कहर–
दिन पर दिन बढ़ता ही चला जा रहा है।
हम सब मौन हैं और हैं
हताश और निराश —
कल क्या होगा इसी की प्रत्याशा में–
###############

करोना का कहर-2
आया है भारी करोना का कहर
उदास- हताश हो गई है हमारी जिंदगी
धरती, आकाश, पेड़ -पौधे ,नदियां ,
सागर ,पहाड़–
सब के सब हताश और निराश हैं
दुखी और परेशान
बच्चे- बूढ़े, जवान
स्त्री-पुरुष और अमीर- गरीब
सब के सब :
क्या हो गया धरा को आज ?
क्यों आज फूल खुश नहीं दिख रहे?
तितलियां भी, भौंरे भी, कोयल भी
और समस्त जड़- चेतन
एक ही लय में दिख रहे आज हैं..

करोना का कहर ऐसा लगता है
जैसे लील जाएगा हमें,
और संपूर्ण मानव जाति को भी;
खेत- खलिहान में फसलें हंसती नहीं दिख रही
भारत माता आज उदास हैं
अपने ही घर में प्रवासिनी के रूप में!
पीपल का बूढ़ा पेड़ यह सब देख रहा है
उसे याद आता है अपना बचपन
जब गांव के बच्चे
उसके कोमल पत्तों को तोड़- तोड़ कर
सीटियाँ बजाया करते थे बचपन में।
तब वह कितना हर्षित होता था ?
बरगद का बूढ़ा पेड़ भी
देख रहा है अपने चारों ओर का परिदृश्य
उसे भी याद आता है अपना बचपन
जब गांव के छोटे-छोटे बच्चे और बड़े भी
गर्मी के दिनों में उसकी डालियों में
झूला बनाकर झूला करते थे
तब विज्ञान भी कहां था इतना आगे
तब सभी प्रकृति के उन्मुक्त वातावरण में
रहते थे निश्चिंत
और आज की तरह छल- कपट भी कहाँ था ?
धरती की माटी याद कर रही है अपने पुराने दिनों को
जब बच्चे का खिलौना हुआ करता था–
मिट्टी का घरौंदा
माटी की मूरतें,
वह मिट्टी
जिसे अपने शरीर में लगा कर जवान हुआ है।
आज करोना का कहर सब पर भारी है
हां, सब पर भारी है।
कवि– पंडित विनय कुमार,
शीतला नगर, रोड नंबर-3
पोस्ट — गुलजारबाग
अगम कुआं
पटना- 800007 (बिहार )
मोबाइल नंबर- 9 33 4504100
एवं 7 9911 56839

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here